अहल-ए-कश्ती ने ख़ुद-कुशी की थी
हुआ बदनाम नाख़ुदा का नाम
Mir Taqi Mir
Habib Jalib
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Faiz Ahmad Faiz
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Parveen Shakir
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मेरे मरने की भी उन को न ख़बर दी जाए
हम को मस्ती ओ ख़्वारी आई
दिल वो सहरा है कि जिस में रात दिन
तेरे महल में कैसे बसर हो इस की तो गीराई बहुत है
हम को अग़्यार का गिला क्या है
बस फ़र्क़ इस क़दर है गुनाह ओ सवाब में
कौन कहता है मोहब्बत की ज़बाँ होती है
वो जिस को हम ने अपनाया बहुत है
ज़िंदगी हम से ख़फ़ा हो जैसे
इश्क़ क्या चीज़ है ये पूछिए परवाने से
अब तो एहसास-ए-तमन्ना भी नहीं
ग़म का सहरा न मिला दर्द का दरिया न मिला