हम को अग़्यार का गिला क्या है
ज़ख़्म खाएँ हैं हम ने यारों से
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मेरे मरने की भी उन को न ख़बर दी जाए
ख़्वाब देखे थे सुहाने कितने
अपनी अपनी ज़ात में गुम हैं अहल-ए-दिल भी अहल-ए-नज़र भी
ज़िंदगी हम से ख़फ़ा हो जैसे
गाँधी
वो जिस को हम ने अपनाया बहुत है
अहल-ए-कशती ने ख़ुद-कुशी की थी
तुम न तौबा करो जफ़ाओं से
वो और होंगे पी के जो सरशार हो गए
दौर-ए-चर्ख़-ए-कबूद जारी है
कौन कहता है मोहब्बत की ज़बाँ होती है