हम क़रीब आ कर और दूर हुए
अपने अपने नसीब होते हैं
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तुम न तौबा करो जफ़ाओं से
बे-हिस के तग़ाफ़ुल का तो शिकवा बे-सूद
नई सुब्ह
कौन कहता है मोहब्बत की ज़बाँ होती है
ख़्वाब देखे थे सुहाने कितने
ये इख़्लास-ए-गराँ-माया बहुत है
आप से क्या दोस्ती होने लगी
ग़म का सहरा न मिला दर्द का दरिया न मिला
आख़िर तड़प तड़प के ये ख़ामोश हो गया
तैरेगा फ़ज़ा में जो समुंदर न मिलेगा
हम को अग़्यार का गिला क्या है
अपनी अपनी ज़ात में गुम हैं अहल-ए-दिल भी अहल-ए-नज़र भी