जब बिगड़ते हैं बात बात पे वो
वस्ल के दिन क़रीब होते हैं
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गाँधी
ये इख़्लास-ए-गराँ-माया बहुत है
शाम को सुब्ह अँधेरे को उजाला लिक्खें
तेरे महल में कैसे बसर हो इस की तो गीराई बहुत है
सदा-ए-जावेदाँ
टालने से वक़्त क्या टलता रहा
आप से क्या दोस्ती होने लगी
वो जिस को हम ने अपनाया बहुत है
बे-हिस के तग़ाफ़ुल का तो शिकवा बे-सूद
हम को अग़्यार का गिला क्या है
अदू-ए-बद-गुमाँ की दास्ताँ कुछ और कही है