बे-हिस के तग़ाफ़ुल का तो शिकवा बे-सूद
वो जिस को हम ने अपनाया बहुत है
गाँधी
अहल-ए-कशती ने ख़ुद-कुशी की थी
मेरे मरने की भी उन को न ख़बर दी जाए
अब तो एहसास-ए-तमन्ना भी नहीं
तैरेगा फ़ज़ा में जो समुंदर न मिलेगा
नई सुब्ह
टालने से वक़्त क्या टलता रहा
आख़िर तड़प तड़प के ये ख़ामोश हो गया
दौर-ए-चर्ख़-ए-कबूद जारी है
शाम को सुब्ह अँधेरे को उजाला लिक्खें