कौन कहता है मोहब्बत की ज़बाँ होती है
ये हक़ीक़त तो निगाहों से बयाँ होती है
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बे-हिस के तग़ाफ़ुल का तो शिकवा बे-सूद
तैरेगा फ़ज़ा में जो समुंदर न मिलेगा
शाम को सुब्ह अँधेरे को उजाला लिक्खें
दिल वो सहरा है कि जिस में रात दिन
ये इख़्लास-ए-गराँ-माया बहुत है
हम को मस्ती ओ ख़्वारी आई
दर्द-ए-दिल भी कभी लहू होगा
जब बिगड़ते हैं बात बात पे वो
दौर-ए-चर्ख़-ए-कबूद जारी है
आख़िर तड़प तड़प के ये ख़ामोश हो गया
नई सुब्ह
ज़िंदगी हम से ख़फ़ा हो जैसे