अपनी अपनी ज़ात में गुम हैं अहल-ए-दिल भी अहल-ए-नज़र भी
महफ़िल में दिल क्यूँकर बहले महफ़िल में तन्हाई बहुत है
Mohsin Naqvi
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हर एक फूल के दामन में ख़ार कैसा है
ग़म का सहरा न मिला दर्द का दरिया न मिला
सदा-ए-जावेदाँ
नई सुब्ह
इश्क़ क्या चीज़ है ये पूछिए परवाने से
आख़िर तड़प तड़प के ये ख़ामोश हो गया
जब बिगड़ते हैं बात बात पे वो
बस फ़र्क़ इस क़दर है गुनाह ओ सवाब में
अहल-ए-कशती ने ख़ुद-कुशी की थी
फिर किसी बेवफ़ा की याद आई
मेरे मरने की भी उन को न ख़बर दी जाए
शाम को सुब्ह अँधेरे को उजाला लिक्खें