सँभल कर पाँव रखना वादी-ए-इश्क़-ओ-मोहब्बत में
यहाँ जो सैर को आता है बच कर कम निकलता है
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आएँ वो लाख देखने वालों के सामने
ख़ुदाया इश्क़ में अच्छी ये शर्त-ए-इम्तिहाँ रख दी
ज़िंदगानी का ये पहलू कुछ ज़रीफ़ाना भी है
ऐ शम्अ' अहल-ए-बज़्म तो बैठे ही रह गए
ख़ुलूस-ए-शौक़ में 'साहिर' बड़ी तासीर होती है
बढ़ी है ख़ाना-ए-दिल में कुछ और तारीकी
गुलों को तोड़ते हैं सूँघते हैं फेंक देते हैं
ये क्यूँकर मान लें उल्फ़त हमें करनी नहीं आती
होती है दूसरों को हमेशा ये नागवार