उस मुल्क में भी लोग क़यामत के हैं मुंकिर
जिस मुल्क के हर शहर में इक हश्र बपा है
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जी में आता है कि इक रोज़ ये मंज़र देखें
वो कौन है जो मिरे साथ साथ चलता है
पड़ा हुआ मैं किसी आइने के घर में हूँ
ख़ुद अपने अक्स को हैरत से देखता हूँ मैं
आँख के कुंज में इक दश्त-ए-तमन्ना ले कर
नाईट-कलब
फूलों की है तख़्लीक़ कि शो'लों से बना है
आग सी बरसती है सब्ज़ सब्ज़ पत्तों से
सहराओं में जा पहुँची है शहरों से निकल कर
चेहरे पे उस के अश्क की तहरीर बन गई
मैं ने तो यूँही राख में फेरी थीं उँगलियाँ