मदरसा मेरा मेरी ज़ात में है
ख़ुद मोअल्लिम हूँ ख़ुद किताब हूँ मैं
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मंज़िलें लाख कठिन आएँ गुज़र जाऊँगा
शरह-ए-ग़म हाए बे-हिसाब हूँ मैं
कितने ही ग़म निखरने लगते हैं
में अब तक दिन के हंगामों में गुम था
ज़िंदगी भर मुझे इस बात की हसरत ही रही
कौन पुर्सान-ए-हाल है मेरा
ज़िंदगी भर मैं सरगिरानी से
मुझ को क्या क्या न दुख मिले 'साक़ी'
दर-ब-दर होने से पहले कभी सोचा भी न था
तू नहीं तो तिरा ख़याल सही
ख़्वाब था या शबाब था मेरा