ज़िंदगी भर मुझे इस बात की हसरत ही रही
दिन गुज़ारूँ तो कोई रात सुहानी आए
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तू नहीं तो तिरा ख़याल सही
ज़िंदगी भर मैं सरगिरानी से
मदरसा मेरा मेरी ज़ात में है
में अब तक दिन के हंगामों में गुम था
मुझ को क्या क्या न दुख मिले 'साक़ी'
सामने जब कोई भरपूर जवानी आए
कितने ही ग़म निखरने लगते हैं
दर-ब-दर होने से पहले कभी सोचा भी न था
शरह-ए-ग़म हाए बे-हिसाब हूँ मैं
कौन पुर्सान-ए-हाल है मेरा
मंज़िलें लाख कठिन आएँ गुज़र जाऊँगा