कितने ही ग़म निखरने लगते हैं
एक लम्हे की शादमानी से
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ज़िंदगी भर मुझे इस बात की हसरत ही रही
ख़्वाब था या शबाब था मेरा
में अब तक दिन के हंगामों में गुम था
मंज़िलें लाख कठिन आएँ गुज़र जाऊँगा
दर-ब-दर होने से पहले कभी सोचा भी न था
सामने जब कोई भरपूर जवानी आए
कौन पुर्सान-ए-हाल है मेरा
शरह-ए-ग़म हाए बे-हिसाब हूँ मैं
तू नहीं तो तिरा ख़याल सही
मदरसा मेरा मेरी ज़ात में है
मुझ को क्या क्या न दुख मिले 'साक़ी'