बुझी रूह की प्यास लेकिन सख़ी
मिरे साथ मेरा बदन भी तो है
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दिन और झाग
आए हैं रंग बहाली पर
पेपर-वेट
''एक नज़्म कहीं से भी शुरूअ हो सकती है''
मैं जो गुज़रा सलाम करने लगा
सूरमा जिस के किनारों से पलट आते हैं
वहीं पर मिरा सीम-तन भी तो है
किस पर पोशीदा और किस पे अयाँ होना था
क़िन्दील-ए-मह-ओ-मेहर का अफ़्लाक पे होना
इक रोज़ मैं भी बाग़-ए-अदन को निकल गया
फिर वो बरसात ध्यान में आई
सोचता हूँ कि उस से बच निकलूँ