बहुत मुसिर थे ख़ुदायान-ए-साबित-ओ-सय्यार
सो मैं ने आइना ओ आसमाँ पसंद किए
Jaun Eliya
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Allama Iqbal
Gulzar
Faiz Ahmad Faiz
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सियाही फेरती जाती हैं रातें बहर ओ बर पे
पत्थरों में आइना मौजूद है
सोचता हूँ कि उस से बच निकलूँ
जब शाम हुई मैं ने क़दम घर से निकाला
पहनाए-बर-ओ-बहर के महशर से निकल कर
जिसे अंजाम तुम समझती हो
सफ़ीना रखता हूँ दरकार इक समुंदर है
सूरमा जिस के किनारों से पलट आते हैं
दस से ऊपर
नई नई सी आग है या फिर कौन है वो
भर जाएँगे जब ज़ख़्म तो आऊँगा दोबारा
ये जो फूट बहा है दरिया फिर नहीं होगा