सियाही फेरती जाती हैं रातें बहर ओ बर पे
इन्ही तारीकियों से मुझ को भी हिस्सा मिलेगा
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आँखों में दमक उट्ठी है तस्वीर-ए-दर-ओ-बाम
अपने अपने घर जा कर सुख की नींद सो जाएँ
सोचता हूँ दयार-ए-बे-परवा
वहीं पर मिरा सीम-तन भी तो है
मिरे सीने में दिल है या कोई शहज़ादा-ए-ख़ुद-सर
किताब-ए-सब्ज़ ओ दर-ए-दास्तान बंद किए
मिलना और बिछड़ जाना किसी रस्ते पर
सोचता हूँ कि उस से बच निकलूँ
बहुत मुसिर थे ख़ुदायान-ए-साबित-ओ-सय्यार
मैं सो रहा था और मिरी ख़्वाब-गाह में
रात बाग़ीचे पे थी और रौशनी पत्थर में थी
सुब्ह होते ही