मिलना और बिछड़ जाना किसी रस्ते पर
इक यही क़िस्सा आदमियों के साथ रहा
Rahat Indori
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सुब्ह होते ही
दुश्वार दिन के किनारे
ये इंतिहा-ए-मसर्रत का शहर है 'सरवत'
सफ़ीना रखता हूँ दरकार इक समुंदर है
मैं तुम्हें याद कर रहा था
किताब-ए-सब्ज़ ओ दर-ए-दास्तान बंद किए
गदा-ए-शहर-ए-आइंदा तही-कासा मिलेगा
ले आएगा इक रोज़ गुल ओ बर्ग भी 'सरवत'
कभी तेग़-ए-तेज़ सुपुर्द की कभी तोहफ़ा-ए-गुल-ए-तर दिया
सोचता हूँ कि उस से बच निकलूँ
अच्छा सा कोई सपना देखो और मुझे देखो
अपने लिए तज्वीज़ की शमशीर-ए-बरहना