ये इंतिहा-ए-मसर्रत का शहर है 'सरवत'
यहाँ तो हर दर-ओ-दीवार इक समुंदर है
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ये कौन उतरा पए-गश्त अपनी मसनद से
आए हैं रंग बहाली पर
दो ही चीज़ें इस धरती में देखने वाली हैं
सियाही फेरती जाती हैं रातें बहर ओ बर पे
पहनाए-बर-ओ-बहर के महशर से निकल कर
अपने अपने घर जा कर सुख की नींद सो जाएँ
किस पर पोशीदा और किस पे अयाँ होना था
देखा जो उस तरफ़ तो बदन पर नज़र गई
जब शाम हुई मैं ने क़दम घर से निकाला
थामी हुई है काहकशाँ अपने हाथ से
मैं किताब-ए-ख़ाक खोलूँ तो खुले
रात ढलने के ब'अद क्या होगा