मिरे सीने में दिल है या कोई शहज़ादा-ए-ख़ुद-सर
किसी दिन उस को ताज-ओ-तख़्त से महरूम कर देखूँ
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इक दास्तान अब भी सुनाते हैं फ़र्श ओ बाम
रात बाग़ीचे पे थी और रौशनी पत्थर में थी
'सरवत' तुम अपने लोगों से यूँ मिलते हो
पानी का हाथ
हवा ओ अब्र को आसूदा-ए-मफ़्हूम कर देखूँ
दश्त ले जाए कि घर ले जाए
पहनाए-बर-ओ-बहर के महशर से निकल कर
मैं सो रहा था और मिरी ख़्वाब-गाह में
क़िन्दील-ए-मह-ओ-मेहर का अफ़्लाक पे होना
मैं जो गुज़रा सलाम करने लगा
कभी तेग़-ए-तेज़ सुपुर्द की कभी तोहफ़ा-ए-गुल-ए-तर दिया
एक पुल बनाया जा रहा है