'सरवत' तुम अपने लोगों से यूँ मिलते हो
जैसे उन लोगों से मिलना फिर नहीं होगा
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जंगल में कभी जो घर बनाऊँ
उम्र का कोह-ए-गिराँ और शब-ओ-रोज़ मिरे
विसाल
दुश्वार दिन के किनारे
अच्छा सा कोई सपना देखो और मुझे देखो
बहुत मुसिर थे ख़ुदायान-ए-साबित-ओ-सय्यार
गर्दिश-ए-सय्यारगाँ ख़ूब है अपनी जगह
इक रोज़ मैं भी बाग़-ए-अदन को निकल गया
इक दास्तान अब भी सुनाते हैं फ़र्श ओ बाम
अपने लिए तज्वीज़ की शमशीर-ए-बरहना
''एक नज़्म कहीं से भी शुरूअ हो सकती है''
सख़ावत का फ़रिश्ता