इक दास्तान अब भी सुनाते हैं फ़र्श ओ बाम
वो कौन थी जो रक़्स के आलम में मर गई
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वहीं पर मिरा सीम-तन भी तो है
पत्थरों में आइना मौजूद है
सुब्ह होते ही
ख़ुश-लिबासी है बड़ी चीज़ मगर क्या कीजे
जाने उस ने क्या देखा शहर के मनारे में
अपने अपने घर जा कर सुख की नींद सो जाएँ
सफ़ीना रखता हूँ दरकार इक समुंदर है
क़िन्दील-ए-मह-ओ-मेहर का अफ़्लाक पे होना
पहनाए-बर-ओ-बहर के महशर से निकल कर
मिलना और बिछड़ जाना किसी रस्ते पर
जंगल में कभी जो घर बनाऊँ
अच्छा सा कोई सपना देखो और मुझे देखो