मौत के दरिंदे में इक कशिश तो है 'सरवत'
लोग कुछ भी कहते हों ख़ुद-कुशी के बारे में
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Habib Jalib
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Jaun Eliya
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Gulzar
Rahat Indori
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वहीं पर मिरा सीम-तन भी तो है
सियाही फेरती जाती हैं रातें बहर ओ बर पे
मैं जो गुज़रा सलाम करने लगा
ये इंतिहा-ए-मसर्रत का शहर है 'सरवत'
बहता हुआ पानी
जंगल में कभी जो घर बनाऊँ
कभी तेग़-ए-तेज़ सुपुर्द की कभी तोहफ़ा-ए-गुल-ए-तर दिया
दुश्वार दिन के किनारे
ख़ुश-लिबासी है बड़ी चीज़ मगर क्या कीजे
सफ़ीना रखता हूँ दरकार इक समुंदर है
गर्दिश-ए-सय्यारगाँ ख़ूब है अपनी जगह
दस से ऊपर