उजले परिंदो वो दिन कितना मैला होगा
आसमान बहुत दूर दूर तक फैला होगा
मैं कश्ती के फ़र्श पे गिर जाऊँगा थक कर
पानी का हाथ सुला देगा मुझे थपक कर
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बहता हुआ पानी
पाँव साकित हो गए 'सरवत' किसी को देख कर
सियाही फेरती जाती हैं रातें बहर ओ बर पे
नज़्म
मौत के दरिंदे में इक कशिश तो है 'सरवत'
महरान, मुझे दो
ये जो फूट बहा है दरिया फिर नहीं होगा
जाने उस ने क्या देखा शहर के मनारे में
घर से निकला तो मुलाक़ात हुई पानी से
दो ही चीज़ें इस धरती में देखने वाली हैं
चाहत
भर जाएँगे जब ज़ख़्म तो आऊँगा दोबारा