फूल पानी पर खिला मिरी मौजूदगी का
सल्तनत सुब्ह-ए-बहाराँ की
बहुत नज़दीक से आवाज़ देती है
सुबुक-रफ़्तार
पैहम घूमते पहिए
गिराँ-ख़्वाबी से जागे
आफ़्ताबी पैरहन का घेर दीवारों को छूता
प्यार करता
रक़्स फ़रमाता
अरे!!!
सूरज निकल आया.....
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थामी हुई है काहकशाँ अपने हाथ से
जंगल में कभी जो घर बनाऊँ
फिर वो बरसात ध्यान में आई
ये इंतिहा-ए-मसर्रत का शहर है 'सरवत'
मैं तुम्हें याद कर रहा था
दस से ऊपर
जब शाम हुई मैं ने क़दम घर से निकाला
बहुत मुसिर थे ख़ुदायान-ए-साबित-ओ-सय्यार
सुब्ह होते ही
उम्र का कोह-ए-गिराँ और शब-ओ-रोज़ मिरे
यक-ब-यक मंज़र-ए-हस्ती का नया हो जाना
यहाँ मज़ाफ़ात में