ज़मीं अतराफ़ की काली हुई जलने लगे देवे
हवाएँ ख़ुश्क पत्तों को गिरा कर सो गईं शायद
फ़रिश्ता नींद का नाराज़ है मुझ से ये कहता है
बहुत दिन सो लिए बेदार रह कर भी ज़रा देखो
अज़ान-ए-फ़ज्र होने तक सितारों की अदा देखो
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भर जाएँगे जब ज़ख़्म तो आऊँगा दोबारा
हुस्न-ए-बहार मुझ को मुकम्मल नहीं लगा
तेरी आशुफ़्ता-मिज़ाजी ऐ दिल
मिरे सीने में दिल है या कोई शहज़ादा-ए-ख़ुद-सर
क़िन्दील-ए-मह-ओ-मेहर का अफ़्लाक पे होना
जिसे अंजाम तुम समझती हो
अच्छा सा कोई सपना देखो और मुझे देखो
यक-ब-यक मंज़र-ए-हस्ती का नया हो जाना
उसी किनारा-ए-हैरत-सरा को जाता हूँ
बहुत मुसिर थे ख़ुदायान-ए-साबित-ओ-सय्यार
दो ही चीज़ें इस धरती में देखने वाली हैं
जाने उस ने क्या देखा शहर के मनारे में