कितने दिल थे जो हो गए पत्थर
कितने पत्थर थे जो सनम ठहरे
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हवा को और भी कुछ तेज़ कर गए हैं लोग
जो ग़म-ए-हबीब से दूर थे वो ख़ुद अपनी आग में जल गए
नींद से आँख वो मिल कर जागे
इक तबस्सुम से हम ने रोक लिए
ख़्वाब से आँख वो मल कर जागे
हब्स तारी है मुसलसल कैसा
नफ़स नफ़स पे नया सोज़-ए-आगही रखना
सहरा की बे-आब ज़मीं पर एक चमन तय्यार किया
आँसू शो'लों में ढल रहे हैं
जुदा हो कर वो हम से है जुदा क्या
जो थके थके से थे हौसले वो शबाब बन के मचल गए
अपनी तलब का नाम डुबोने क्यूँ जाएँ मय-ख़ाने तक