और कुछ भी मुझे दरकार नहीं है लेकिन
मेरी चादर मिरे पैरों के बराबर कर दे
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आँसुओं में ज़रा सी हँसी घोल कर
मजमा' मिरे हिसार में सैलानियों का है
न जाने क्या हुए अतराफ़ देखने वाले
समुंदरों में अगर ख़लफ़िशार-ए-आब न हो
गँवाए बैठे हैं आँखों की रौशनी 'शाहिद'
तारीकियों का हम थे हदफ़ देखते रहे
ऐसे भी कुछ ग़म होते हैं
उजले मोती हम ने माँगे थे किसी से थाल भर
वही सफ़्फ़ाक हवाओं का सदफ़ बनते हैं
हर इरादा मुज़्महिल हर फ़ैसला कमज़ोर था
पहले तो छीन ली मिरी आँखों की रौशनी
ऐ ख़ुदा रेत के सहरा को समुंदर कर दे