बुझती हुई सी एक शबीह ज़ेहन में लिए
मिटती हुई सितारों की सफ़ देखते रहे
Ahmad Faraz
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Gulzar
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Faiz Ahmad Faiz
Anwar Masood
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Rahat Indori
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उजले मोती हम ने माँगे थे किसी से थाल भर
ज़ेहन में लगता है जब ख़ुश-रंग लफ़्ज़ों का हुजूम
ऐसे भी कुछ ग़म होते हैं
वही सफ़्फ़ाक हवाओं का सदफ़ बनते हैं
समुंदरों में अगर ख़लफ़िशार-ए-आब न हो
मीनारों से ऊपर निकला दीवारों से पार हुआ
हर इरादा मुज़्महिल हर फ़ैसला कमज़ोर था
मजमा' मिरे हिसार में सैलानियों का है
ऐ ख़ुदा रेत के सहरा को समुंदर कर दे
रोने से और लुत्फ़ वफ़ाओं का बढ़ गया
आँसुओं में ज़रा सी हँसी घोल कर
पहले तो छीन ली मिरी आँखों की रौशनी