वही सफ़्फ़ाक हवाओं का सदफ़ बनते हैं
जिन दरख़्तों का निकलता हवा क़द होता है
Mohsin Naqvi
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मजमा' मिरे हिसार में सैलानियों का है
इक सब्ज़ रंग बाग़ दिखाया गया मुझे
रोने से और लुत्फ़ वफ़ाओं का बढ़ गया
तारीकियों का हम थे हदफ़ देखते रहे
मीनारों से ऊपर निकला दीवारों से पार हुआ
ज़ेहन में लगता है जब ख़ुश-रंग लफ़्ज़ों का हुजूम
बुझती हुई सी एक शबीह ज़ेहन में लिए
गँवाए बैठे हैं आँखों की रौशनी 'शाहिद'
हर इरादा मुज़्महिल हर फ़ैसला कमज़ोर था
ऐसे भी कुछ ग़म होते हैं
न जाने क्या हुए अतराफ़ देखने वाले