रोने से और लुत्फ़ वफ़ाओं का बढ़ गया
सब ज़ाइक़ा फलों में नए पानियों का है
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Gulzar
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ऐ ख़ुदा रेत के सहरा को समुंदर कर दे
वार हुआ कुछ इतना गहरा पानी का
इक सब्ज़ रंग बाग़ दिखाया गया मुझे
मजमा' मिरे हिसार में सैलानियों का है
न जाने क्या हुए अतराफ़ देखने वाले
वही सफ़्फ़ाक हवाओं का सदफ़ बनते हैं
उजले मोती हम ने माँगे थे किसी से थाल भर
हर इरादा मुज़्महिल हर फ़ैसला कमज़ोर था
ख़ौफ़ से अब यूँ न अपने घर का दरवाज़ा लगा
बुझती हुई सी एक शबीह ज़ेहन में लिए
तुझ को देखा नहीं महसूस किया है मैं ने
ऐसे भी कुछ ग़म होते हैं