तुझ को देखा नहीं महसूस किया है मैं ने
आ किसी दिन मिरे एहसास को पैकर कर दे
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तारीकियों का हम थे हदफ़ देखते रहे
न जाने क्या हुए अतराफ़ देखने वाले
समुंदरों में अगर ख़लफ़िशार-ए-आब न हो
ख़ौफ़ से अब यूँ न अपने घर का दरवाज़ा लगा
वही सफ़्फ़ाक हवाओं का सदफ़ बनते हैं
ज़ेहन में लगता है जब ख़ुश-रंग लफ़्ज़ों का हुजूम
ऐ ख़ुदा रेत के सहरा को समुंदर कर दे
बुझती हुई सी एक शबीह ज़ेहन में लिए
आँसुओं में ज़रा सी हँसी घोल कर
और कुछ भी मुझे दरकार नहीं है लेकिन
मीनारों से ऊपर निकला दीवारों से पार हुआ