गँवाए बैठे हैं आँखों की रौशनी 'शाहिद'
जहाँ-पनाह का इंसाफ़ देखने वाले
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Faiz Ahmad Faiz
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Gulzar
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न जाने क्या हुए अतराफ़ देखने वाले
तारीकियों का हम थे हदफ़ देखते रहे
रोने से और लुत्फ़ वफ़ाओं का बढ़ गया
तुझ को देखा नहीं महसूस किया है मैं ने
उजले मोती हम ने माँगे थे किसी से थाल भर
वार हुआ कुछ इतना गहरा पानी का
ऐ ख़ुदा रेत के सहरा को समुंदर कर दे
बुझती हुई सी एक शबीह ज़ेहन में लिए
और कुछ भी मुझे दरकार नहीं है लेकिन
वही सफ़्फ़ाक हवाओं का सदफ़ बनते हैं
हर इरादा मुज़्महिल हर फ़ैसला कमज़ोर था