आँखें न जीने देंगी तिरी बे-वफ़ा मुझे
क्यूँ खिड़कियों से झाँक रही है क़ज़ा मुझे
Gulzar
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महरम के सितारे टूटते हैं
वो रश्क-ए-मेहर-ओ-क़मर घात पर नहीं आता
सर्व में रंग है कुछ कुछ तिरी ज़ेबाई का
वस्ल में ज़िक्र ग़ैर का न करो
अफ़्सोस उम्र कट गई रंज-ओ-मलाल में
ख़ुदा-परस्त हुए हम न बुत-परस्त हुए
बद-तालई का इलाज क्या हो
ये दिल है तो आफ़त में पड़ते रहेंगे
तारे गिनते रात कटती ही नहीं आती है नींद
सब हसीनों में वो प्यारा ख़ूब है
महबूब-ए-ख़ुदा ने तुझे नायाब बनाया
किया सलाम जो साक़ी से हम ने जाम लिया