मुझे दैर से तअल्लुक़ न हरम से आश्नाई
मुझे दैर से तअल्लुक़ न हरम से आश्नाई
कहीं क़श्क़ा-ए-नुमाइश कहीं सज्दा-ए-रियाई
किसी जेब-ए-दिल में देखी न मता-ए-इश्क़ मैं ने
मिरे शहर में लुटा दो मिरा दर्द-ए-बे-नवाई
मिरे दिल के आईने को न शिकस्ता कर ख़ुदा-रा
कि उदास हो न जाए तिरा हुस्न-ए-ख़ुद-नुमाई
कोई कब पहुँच सका है तिरे ग़म की सरहदों तक
वही कारवाँ की मंज़िल जो मिरी शिकस्ता-पाई
मिरे हर्फ़-ए-सद-तमन्ना से खिला तो कोई ग़ुंचा
मैं निसार-ए-यक-तबस्सुम कि हुई तो लब-कुशाई
मिरी ग़ुर्बत-ए-सहर का न थका ग़ुरूर वर्ना
मैं चमन से माँग लेता कोई शाम-ए-बे-हयाई
न 'शमीम' नाज़ करना कि अतीया-ए-जुनूँ है
ये तिरा तरन्नुम-ए-ग़म ये तिरी ग़ज़ल-सराई
(606) Peoples Rate This