शम्अ' पर शम्अ' जलाती हुई साथ आती है
शम्अ' पर शम्अ' जलाती हुई साथ आती है
रात आती है कि यादों की बरात आती है
इक ज़रा कूचा-ए-जानाँ में ठहर जा ऐ मौत
ख़ैर-मक़्दम के लिए मेरी हयात आती है
फेर लेते हैं निगाहें तिरे प्यासे हँस कर
जाम पर जाम लिए मौज-ए-फ़ुरात आती है
क़िस्सा-ए-दैर-ओ-हरम और से पूछो लोगो
हम तो शाइ'र हैं हमें प्यार की बात आती है
होशियार ऐ दिल-ए-बेताब कि मक़्तल है क़रीब
आख़िरी मंज़िल-ए-तस्लीम-ओ-सिबात आती है
जगमगाते हुए महलों की तरफ़ तो देखो
उन की दुनिया में दिन आता है कि रात आती है
जिस से बन जाती है बिगड़ी हुई क़िस्मत ऐ दोस्त
ऐसी तदबीर भी तक़दीर से हाथ आती है
तिश्ना-कामान-ए-मोहब्बत से कहो सब्र करें
मौत हाथों में लिए आब-ए-हयात आती है
मुस्कुराहट नहीं आती लब-ए-साक़ी पे 'शमीम'
ग़म-ए-दौराँ के लिए सुब्ह-ए-नजात आती है
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