मुझे हर शाम इक सुनसान जंगल खींच लेता है
और इस के बाद फिर ख़ूनी बलाएँ रक़्स करती हैं
Faiz Ahmad Faiz
Anwar Masood
Rahat Indori
Wasi Shah
Mir Taqi Mir
Allama Iqbal
Habib Jalib
Mohsin Naqvi
Gulzar
Jaun Eliya
Parveen Shakir
Ahmad Faraz
Love Poetry
Funny Poetry
Sad Poetry
Rain Poetry
Sharabi Poetry
Friends Poetry
(520) Peoples Rate This
दीवार की सूरत था कभी दर की तरह था
इक शख़्स तेरी बज़्म से ख़ामोश उठ गया
मिरे अतराफ़ ये कैसी सदाएँ रक़्स करती हैं
इस से पहले कि चराग़ों को वो बुझता देखे
पलकों पे सितारा सा मचलने के लिए था
आँखों में हिज्र चेहरे पे ग़म की शिकन तो है
दूर तक फैली हुई है तीरगी बातें करो
ज़मीं को खींच के मैं सू-ए-आसमाँ ले जाऊँ
रूह को अपनी तह-ए-दाम नहीं कर सकता
मैं ने हाथों में कुछ नहीं रक्खा
सितारा टूट के बिखरा और इक जहान खुला