फ़राज़-ए-दार पे भी मैं ने तेरे गीत गाए हैं
बता ऐ ज़िंदगी तू लेगी कब तक इम्तिहाँ मेरा
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अदल-ए-फ़ारूक़ी का एक नमूना
उलमा-ए-ज़िंदानी
आप जाते तो हैं उस बज़्म में 'शिबली' लेकिन
असर के पीछे दिल-ए-हज़ीं ने निशान छोड़ा न फिर कहीं का
पूछते क्या हो जो हाल-ए-शब-ए-तन्हाई था
ये नज़्म-ए-आईं ये तर्ज़-ए-बंदिश सुख़नवरी है फ़ुसूँ-गरी है
यार को रग़बत-ए-अग़्यार न होने पाए
अदल-ए-जहाँगीरी
तीर-ए-क़ातिल का ये एहसाँ रह गया
जम्अ कर लीजिए ग़ैरों को मगर ख़ूबी-ए-बज़्म
ना-तवाँ इश्क़ ने आख़िर किया ऐसा हम को