जम्अ कर लीजिए ग़ैरों को मगर ख़ूबी-ए-बज़्म
बस वहीं तक है कि बाज़ार न होने पाए
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मुस्लिम-लीग
तीर-ए-क़ातिल का ये एहसाँ रह गया
कुछ अकेली नहीं मेरी क़िस्मत
ना-तवाँ इश्क़ ने आख़िर किया ऐसा हम को
आप जाते तो हैं उस बज़्म में 'शिबली' लेकिन
मैं रूह-ए-आलम-ए-इम्काँ में शरह-ए-अज़्मत-ए-यज़्दाँ
फ़राज़-ए-दार पे भी मैं ने तेरे गीत गाए हैं
पूछते क्या हो जो हाल-ए-शब-ए-तन्हाई था
अजब क्या है जो नौ-ख़ेज़ों ने सब से पहले जानें दीं
तस्ख़ीर-ए-चमन पर नाज़ाँ हैं तज़ईन-ए-चमन तो कर न सके
उलमा-ए-ज़िंदानी
तीस दिन के लिए तर्क-ए-मय-ओ-साक़ी कर लूँ