तस्ख़ीर-ए-चमन पर नाज़ाँ हैं तज़ईन-ए-चमन तो कर न सके
तसनीफ़ फ़साना करते हैं क्यूँ आप मुझे बहलाने को
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मुस्लिम-लीग
जम्अ कर लीजिए ग़ैरों को मगर ख़ूबी-ए-बज़्म
यार को रग़बत-ए-अग़्यार न होने पाए
आप जाते तो हैं उस बज़्म में 'शिबली' लेकिन
मैं रूह-ए-आलम-ए-इम्काँ में शरह-ए-अज़्मत-ए-यज़्दाँ
असर के पीछे दिल-ए-हज़ीं ने निशान छोड़ा न फिर कहीं का
अजब क्या है जो नौ-ख़ेज़ों ने सब से पहले जानें दीं
अदल-ए-फ़ारूक़ी का एक नमूना
तीर-ए-क़ातिल का ये एहसाँ रह गया
पूछते क्या हो जो हाल-ए-शब-ए-तन्हाई था
फ़राज़-ए-दार पे भी मैं ने तेरे गीत गाए हैं