मैं देखता हूँ फ़राज़-ए-जुनूँ से दुनिया को
कि सहल भी नहीं शायान-ए-आरज़ू होना
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तसलसुल पाएमाली का मिलेगा
पेच-दर-पेच सवालात में उलझे हुए हैं
इस तरह चश्म-ए-नीम-वा ग़ाफ़िल भी थी बेदार भी
हाल-ए-दिल-ए-तबाह किसी ने सुना कहाँ
मलाल-ए-ग़ुंचा-ए-तर जाएगा कभी न कभी
दरख़्शाँ हो जो वो मह-ज़ादा-ए-शब
कहीं भी ताइर-ए-आवारा हो मगर तय है
ख़ाकसारों से क़रीं रहता है
किसी से इश्क़ हो जाने को अफ़्साना नहीं कहते
हल्क़ा-ए-शाम-ओ-सहर से नहीं जाने वाला
है किस के लिए लुत्फ़ ग़ज़ब किस के लिए है