दिन Poetry (page 64)

तुम सलामत रहो हज़ार बरस

ग़ालिब

रात दिन गर्दिश में हैं सात आसमाँ

ग़ालिब

क़र्ज़ की पीते थे मय लेकिन समझते थे कि हाँ

ग़ालिब

न लुटता दिन को तो कब रात को यूँ बे-ख़बर सोता

ग़ालिब

मौत का एक दिन मुअय्यन है

ग़ालिब

मय से ग़रज़ नशात है किस रू-सियाह को

ग़ालिब

लाज़िम था कि देखो मिरा रस्ता कोई दिन और

ग़ालिब

जी ढूँडता है फिर वही फ़ुर्सत कि रात दिन

ग़ालिब

जाते हुए कहते हो क़यामत को मिलेंगे

ग़ालिब

हम से खुल जाओ ब-वक़्त-ए-मय-परस्ती एक दिन

ग़ालिब

हाँ ऐ फ़लक-ए-पीर जवाँ था अभी आरिफ़

ग़ालिब

आ ही जाता वो राह पर 'ग़ालिब'

ग़ालिब

ज़ख़्म पर छिड़कें कहाँ तिफ़्लान-ए-बे-परवा नमक

ग़ालिब

उस बज़्म में मुझे नहीं बनती हया किए

ग़ालिब

सीमाब-पुश्त गर्मी-ए-आईना दे है हम

ग़ालिब

सब कहाँ कुछ लाला-ओ-गुल में नुमायाँ हो गईं

ग़ालिब

क़फ़स में हूँ गर अच्छा भी न जानें मेरे शेवन को

ग़ालिब

नहीं कि मुझ को क़यामत का ए'तिक़ाद नहीं

ग़ालिब

न हुई गर मिरे मरने से तसल्ली न सही

ग़ालिब

न गुल-ए-नग़्मा हूँ न पर्दा-ए-साज़

ग़ालिब

मुद्दत हुई है यार को मेहमाँ किए हुए

ग़ालिब

मस्जिद के ज़ेर-ए-साया ख़राबात चाहिए

ग़ालिब

मैं उन्हें छेड़ूँ और वो कुछ न कहें

ग़ालिब

मैं और बज़्म-ए-मय से यूँ तिश्ना-काम आऊँ

ग़ालिब

लाज़िम था कि देखो मिरा रस्ता कोई दिन और

ग़ालिब

कोई उम्मीद बर नहीं आती

ग़ालिब

कोई दिन गर ज़िंदगानी और है

ग़ालिब

जौर से बाज़ आए पर बाज़ आएँ क्या

ग़ालिब

हम से खुल जाओ ब-वक़्त-ए-मय-परस्ती एक दिन

ग़ालिब

हैराँ हूँ दिल को रोऊँ कि पीटूँ जिगर को मैं

ग़ालिब

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