याद Poetry (page 47)

भर आईं आँखें किसी भूली याद से शाम के मंज़र में

इफ़्तिख़ार बुख़ारी

बनती है सँवरती है बिखर जाती है दुनिया

इफ़्तिख़ार बुख़ारी

हम अपने रफ़्तगाँ को याद रखना चाहते हैं

इफ़्तिख़ार आरिफ़

इक ख़्वाब ही तो था जो फ़रामोश हो गया

इफ़्तिख़ार आरिफ़

दुआएँ याद करा दी गई थीं बचपन में

इफ़्तिख़ार आरिफ़

यक़ीन से यादों के बारे में कुछ कहा नहीं जा सकता

इफ़्तिख़ार आरिफ़

इंतिबाह

इफ़्तिख़ार आरिफ़

सितारा-वार जले फिर बुझा दिए गए हम

इफ़्तिख़ार आरिफ़

शिकस्ता-पर जुनूँ को आज़माएँगे नहीं क्या

इफ़्तिख़ार आरिफ़

हम अपने रफ़्तगाँ को याद रखना चाहते हैं

इफ़्तिख़ार आरिफ़

ग़ैरों से दाद-ए-जौर-ओ-जफ़ा ली गई तो क्या

इफ़्तिख़ार आरिफ़

मैं जिन्हें याद हूँ अब तक यही कहते होंगे

इदरीस बाबर

धूल उड़ती है तो याद आता है कुछ

इदरीस बाबर

दिल कोई आईना नहीं टूट के रह गया तो फिर

इदरीस बाबर

देख न इस तरह गुज़ार अर्सा-ए-चश्म से मुझे

इदरीस बाबर

और वहशत है इरादा मेरा

इदरीस बाबर

अब मसाफ़त में तो आराम नहीं आ सकता

इदरीस बाबर

करता हूँ एक ख़्वाब के मुबहम नुक़ूश याद

इब्राहीम होश

मैं वो नहीं कि ज़माने से बे-अमल जाऊँ

इब्राहीम होश

हम भूल सके हैं न तुझे भूल सकेंगे

इब्न-ए-इंशा

अहल-ए-वफ़ा से तर्क-ए-तअल्लुक़ कर लो पर इक बात कहें

इब्न-ए-इंशा

ये बातें झूटी बातें हैं

इब्न-ए-इंशा

दिल-आशोब

इब्न-ए-इंशा

चाँद के तमन्नाई

इब्न-ए-इंशा

उस शाम वो रुख़्सत का समाँ याद रहेगा

इब्न-ए-इंशा

किस को पार उतारा तुम ने किस को पार उतारोगे

इब्न-ए-इंशा

इस शहर के लोगों पे ख़त्म सही ख़ु-तलअ'ती-ओ-गुल-पैरहनी

इब्न-ए-इंशा

हमें तुम पे गुमान-ए-वहशत था हम लोगों को रुस्वा किया तुम ने

इब्न-ए-इंशा

माहौल से जैसे कि घुटन होने लगी है

हुसैन ताज रिज़वी

ख़्वाबों के साथ ज़ेहन की अंगड़ाइयाँ भी हैं

हुरमतुल इकराम

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