सब्र पर दिल को तो आमादा किया है लेकिन
होश उड़ जाते हैं अब भी तिरी आवाज़ के साथ
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कहते हैं कि उम्मीद पे जीता है ज़माना
ज़ालिम दम-ए-नज़अ न आया अफ़सोस
इश्क़ पाबंद-ए-वफ़ा है न कि पाबंद-ए-रुसूम
बेताब सा फिरता है कई रोज़ से 'आसी'
हज़ारों तरह अपना दर्द हम इस को सुनाते हैं
मुरत्तब कर गया इक इश्क़ का क़ानून दुनिया में
उल्फ़त में मरे तो ज़िंदगी मिलती है
जहाँ अपना क़िस्सा सुनाना पड़ा
हज़ारों तरह अपना दर्द हम उस को सुनाते हैं
बातों में तो इख़्तियार शीरीनी कर
क़ैद से पहले भी आज़ादी मिरी ख़तरे में थी