शोलों से बे-कार डराते हो हम को
गुज़रे हैं हम सर्द जहन्नम-ज़ारों से
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बाम-ओ-दर की रौशनी फिर क्यूँ बुलाती है मुझे
नेक गुज़रे मिरी शब सिद्क़-ए-बदन से तेरे
लम्हा-ए-तख़्लीक़ बख़्शा उस ने मुझ को भीक में
ज़िक्र हम से बे-तलब का क्या तलबगारी के दिन
औज-बिन-उनुक़
खिले हैं फूल की सूरत तिरे विसाल के दिन
वो तो ऐसा भी है वैसा भी है कैसा है मगर?
इक ईमा इक इशारा मर रहा है
बम्बई की एक पुरानी शाम
सबक़ उम्र का या ज़माने का है
ख़राब-ए-दर्द हुए ग़म-परस्तियों में रहे
'सादेम'