नेक गुज़रे मिरी शब सिद्क़-ए-बदन से तेरे
ग़म नहीं राब्ता-ए-सुब्ह जो काज़िब ठहरे
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ख़बर के मोड़ पे संग-ए-निशाँ थी बे-ख़बरी
वो तो ऐसा भी है वैसा भी है कैसा है मगर?
सोच कर भी क्या जाना जान कर भी क्या पाया
मरने की पुख़्ता-ख़याली में जीने की ख़ामी रहने दो
शोलों से बे-कार डराते हो हम को
औज-बिन-उनुक़
मिरी झोली में वो लफ़्ज़ों के मोती डाल देता है
दम-ए-वापसीं
ज़र्फ़
मंज़र शमशान हो गया है
ईद उस परी-वश की
ना-काम कोशिश