जन्नत की ख़ुनुक हवा मिली तो
ठंडक हमें नागवार गुज़री
मुँह फेर के नाक भौं चढ़ा के
इक दूजे को देखा और हम ने
चाहा कि ज़रा सी नार-ए-दोज़ख़
मिल जाए तो हाथ ताप लें हम
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नज़र की मौत इक ताज़ा अलमिया
हसरत-ए-दीद नहीं ज़ौक़-ए-तमाशा भी नहीं
मिरी निगाहों पे जिस ने शाम ओ सहर की रानाइयाँ लिखी हैं
नींद मिट्टी की महक सब्ज़े की ठंडक
ज़माने सब्ज़ ओ सुर्ख़ ओ ज़र्द गुज़रे
जैसे कोई दायरा तकमील पर है
औज-बिन-उनुक़
ख़याल-ए-ख़ातिर-ए-अहबाब
ख़बर के मोड़ पे संग-ए-निशाँ थी बे-ख़बरी
ख़ुद को क्यूँ जिस्म का ज़िंदानी करें
ला से ला का सफ़र था तो फिर किस लिए
अबस है राज़ को पाने की जुस्तुजू क्या है