ला से ला का सफ़र था तो फिर किस लिए
हर ख़म-ए-राह से जाँ उलझती रही
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बयाज़ पर सँभल सके न तजरबे
मुफ़्लिसी भूक को शहवत से मिला देती है
दूर से शहर-ए-फ़िक्र सुहाना लगता है
कभी नुमायाँ कभी तह-नशीं भी रहते हैं
मैं एक साअत-ए-बे-ख़ुद में छू गया था जिसे
आई हवा न रास जो सायों के शहर की
खुली जब आँख तो देखा कि दुनिया सर पे रक्खी है
अब आ के क़लम के पहलू में सो जाती हैं बे-कैफ़ी से
ख़िरद की रह जो चला मैं तो दिल ने मुझ से कहा
शिकस्त-ए-व'अदा की महफ़िल अजीब थी तेरी
मिज़ाज-ए-सहल-तलब अपना रुख़्सतें माँगे