मैं एक साअत-ए-बे-ख़ुद में छू गया था जिसे
फिर उस को लफ़्ज़ तक आते हुए ज़माने लगे
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शिरकत
मिरी रफ़ीक़-ए-नफ़्स मौत तेरी उम्र दराज़
शोलों से बे-कार डराते हो हम को
खिले हैं फूल की सूरत तिरे विसाल के दिन
जब तक शब्द के दीप जलेंगे सब आएँगे तब तक यार
ना-काम कोशिश
बुझ गई आग तो कमरे में धुआँ ही रखना
मौत से आगे सोच के आना फिर जी लेना
बजा कि पाबंद-ए-कूचा-ए-नाज़ हम हुए थे
लफ़्ज़ों के सहरा में क्या मा'नी के सराब दिखाना भी
मिरी निगाहों पे जिस ने शाम ओ सहर की रानाइयाँ लिखी हैं
बहुत मलूल बड़े शादमाँ गए हुए हैं