मिरे मह ओ साल की कहानी की दूसरी क़िस्त इस तरह है
जुनूँ ने रुस्वाइयाँ लिखी थीं ख़िरद ने तन्हाइयाँ लिखी हैं
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न मक़ामात न तरतीब-ए-ज़मानी अपनी
दोस्त अहबाब से लेने न सहारे जाना
बजा कि पाबंद-ए-कूचा-ए-नाज़ हम हुए थे
वो तो ऐसा भी है वैसा भी है कैसा है मगर?
सवाल बे-अमान बन के रह गए
मैं एक साअत-ए-बे-ख़ुद में छू गया था जिसे
ज़िक्र हम से बे-तलब का क्या तलबगारी के दिन
ख़िरद की रह जो चला मैं तो दिल ने मुझ से कहा
बचपन में हम ही थे या था और कोई
मिज़ाज-ए-सहल-तलब अपना रुख़्सतें माँगे
खुली जब आँख तो देखा कि दुनिया सर पे रक्खी है
लम्हा-ए-तख़्लीक़ बख़्शा उस ने मुझ को भीक में