बचपन में हम ही थे या था और कोई
वहशत सी होने लगती है यादों से
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हिसार-ए-दीद में जागा तिलिस्म-ए-बीनाई
हर इक लम्हे की रग में दर्द का रिश्ता धड़कता है
नानी-अमाँ की वफ़ात पर एक नज़्म
बजा कि लुत्फ़ है दुनिया में शोर करने का
लफ़्ज़ का दरिया उतरा दश्त-ए-मआनी फैला
'साज़' जब खुला हम पर शेर कोई 'ग़ालिब' का
बयाज़ पर सँभल सके न तजरबे
अलविदा
आरज़ू
हसरत-ए-दीद नहीं ज़ौक़-ए-तमाशा भी नहीं
यूँ तो सौ तरह की मुश्किल सुख़नी आए हमें
ख़बर के मोड़ पे संग-ए-निशाँ थी बे-ख़बरी