'साज़' जब खुला हम पर शेर कोई 'ग़ालिब' का
हम ने गोया बातिन का इक सुराग़ सा पाया
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अब आ के क़लम के पहलू में सो जाती हैं बे-कैफ़ी से
अज़दवाजी ज़िंदगी भी और तिजारत भी अदब भी
जीतने मारका-ए-दिल वो लगातार गया
बजा कि पाबंद-ए-कूचा-ए-नाज़ हम हुए थे
दोस्त अहबाब से लेने न सहारे जाना
प्यास बुझ जाए ज़मीं सब्ज़ हो मंज़र धुल जाए
वो तो ऐसा भी है वैसा भी है कैसा है मगर?
'सादेम'
ख़बर के मोड़ पे संग-ए-निशाँ थी बे-ख़बरी
मरने की पुख़्ता-ख़याली में जीने की ख़ामी रहने दो
लम्हा-ए-तख़्लीक़ बख़्शा उस ने मुझ को भीक में
कभी नुमायाँ कभी तह-नशीं भी रहते हैं